आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब प्रांत के मंडी जिले में स्थित हड़प्पा के निवासियों को शायद इस बात का आभास नहीं था कि वह अपने आसपास के जमीन में दबे जिन ईटो का प्रयोग जितने धड़ल्ले से अपने मकानों का निर्माण में कर रहे हैं वह कोई साधारण इटे नहीं नहीं बल्कि लगभग 5000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित एक सभ्यता के अवशेष हैं
सन 1856 में जॉन विलियम ब्रंटन ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बिछाने हेतु ईंटो की आपूर्ति के लिए इन खंडहरों की खुदाई प्रारंभ करवाई, खुदाई के दौरान ही इन सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे हड़प्पा सभ्यता का नाम दिया गया
इस सभ्यता की खोज का श्रेय रायबहादुर दयाराम साहनी को जाता है उन्होंने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में 1921 में इस स्थान की खुदाई करवाई| लगभग 1 वर्ष बाद 1922 ईस्वी में श्री राखल दास बनर्जी के नेतृत्व में पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लरकाना जिले के मोहनजोदड़ो में स्थित एक बौद्ध स्तूप की खुदाई के समय एक और स्थान का पता चला इस नवीन स्थान के प्रकाश में आने के उपरांत यह मान लिया गया कि संभवत सिंधु नदी के घाटी तक ही सीमित है इसका नाम सिंधु घाटी की सभ्यता (इंडस वैली सिविलाइजेशन) रखा गया|
सिंधु सभ्यता को आद्य ऐतिहासिक काल मैं शामिल किया जाता है, अब तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस सभ्यता के लगभग 1000 स्थानों को पता चला है वे है हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हूदरो, लोथल, कालीबंगा, हिसार, बनवाली|
सभ्यता का विस्तार______
पाकिस्तान और भारत के पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जम्मू एंड कश्मीर, के भागों में मिले हैं
इस सभ्यता का विस्तार उत्तर में जम्मू के मांडा जिले से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने भगत राव तक पश्चिमी मकरान समुद्र तट पर सूक्तगेंडोर से लेकर पूर्व में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ तक है
रेडियो कार्बन C14 नवीन विश्लेषण पद्धति से सिंधु सभ्यता की तिथि का अनुमान 2350 ईस्वी पूर्व से 1750 तक मानी गई है
इस सभ्यता का मुख्य निवासी द्रविड़ और भूमध्यसागरीय लोग थे
इस सभ्यता का सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल सुतकागेंडोर (बलूचिस्तान), पूरब में आलमगीरपुर ( जिला मेरठ, उत्तर प्रदेश), उत्तर में मांदा (जिला अखनूर जम्मू कश्मीर), दक्षिण में दायमा बाद ( जिला अहमदनगर, महाराष्ट्र)
सिंधु सभ्यता में केवल 6 ही बड़नगर की संज्ञा दी गई है (ड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हूदरो, लोथल, कालीबंगा, हिसार, बनवाली| )
सिंधु घाटी की सर्वाधिक स्थल गुजरात में खोजें गए हैं
लोथल एवं सुत्कोतदा सिंधु सभ्यता का बंदरगाह था
जूते हुए खेत और नकाशी दार ईट कालीबंगन में मिला है
सिंधु घाटी सभ्यता की सबसे बड़ी इमारत मोहनजोदड़ो मिला है वृहत स्नानागार
अग्निकुंड लोथल एवं कालीबंगा में मिला है
पशुपतिनाथ की मूर्ति जिसे 3 मुख वाले देवता की संज्ञा दी गई है और उनके चारों ओर हाथी, गैंडा, चीता एवं भैंसा विराजमान है जोकि मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुआ है
नर्तकी की कांस्य मूर्ति मोहनजोदड़ो में मिली है
हड़प्पा के मोहरों पर सबसे अधिक एक श्रृंगी पशु का आकलन मिला है
लोथल एवं चन्हूदरो में मनके बनाने के कारखाने थे
सिंधु सभ्यता में भाव चित्रात्मक लिपि का प्रयोग होता था जो दाएं से बाएं लिखी जाती थी
सिंधु घाटी में घरों के दरवाजे रोड की तरफ ना खुलकर घर के अंदर की तरफ खुलते थे एकमात्र लोथल नगर के घरों के दरवाजे सड़क की और खुलते थे
गेहूं और जो यहां की मुख्य फसल थी
मिठास के लिए सहद का प्रयोग करते थे
चावल के दाने जो कि रंगपुर और लोथल से मिले हैं जिससे यह साबित होता है की धान की खेती होती थी
सिंधु कालीन घोड़े के अस्थि पंजर सुरकोतदा , कालीबंगन एवं लोसल से मिला है
तौल की इकाई के लिए 16:00 के अनुपात में माप तोल होती थी
यातायात के लिए दो पहिए एवं चार पहिए वाली बैलगाड़ी या भैंसा गाड़ी का उपयोग करते थे
मेहुला शब्द जो कि मेसोपोटामिया के अभिलेखों में मिला है उसका अभिप्राय सिंधु सभ्यता से ही था
सिंधु सभ्यता का शासन वर्णिक वर्ग के हाथों में था
पिग्गुट ने हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो को जुड़वा राजधानी कहा था
धरती को उर्वरता की देवी मानकर सिंधु वासी उनकी पूजा करते थे
सिंधु सभ्यता में वृक्ष पूजा एवं शिव पूजा के साक्ष्य मिले हैं
सिंधु घाटी में किसी भी नगर में मंदिर के अवशेष नहीं मिले हैं
स्वास्तिक चिन्ह हड़प्पा में मिला है
मातृ देवी की पूजा इस काल में सर्वाधिक प्रचलित थी
कूबड़ वाला सांड इस सभ्यता में विशेष पूजनीय था
यह समाज मृत्स्क्तात्मक था
सूती व ऊनि वस्त्रो का उपयोग ज्यादा होता था
मछली पकड़ना, शिकार करना, पक्षियों को आपस में लड़ना ये सब मनोरंजन के साधन थे
काले रंग के लेप से लिपा हुवा लाल रंग के बर्तन का साख्या मिला है|
सिन्धु सभ्यता के लोग लोहे से उन्भिग्न थे, उन्हे लोहे की जानकारी नहीं थी
पर्दाप्रथा तथा व्स्यावृति प्रचलित थी
सवो को जलाने और गाड़ने की प्रथा थी
टेराकोटा – आग में पक्के बर्तन को कहा जाता था |